Saturday, January 30, 2016

प्रॉपर्टी बाज़ार----एक षड्यंत्र आम इन्सान के खिलाफ़


अस्सी के दशक के खतम होते होते हम लोग पंजाब से दिल्ली आ गए थे.......उन दिनों यहाँ प्रोपर्टी का धंधा उछाल पर था.......जैसे हम पंजाब से आये  और भी बहुत लोग आये थे...........फिर कुछ ही समय बाद कुछ लोग कश्मीर छोड़ दिल्ली आ गए.....वो भी एक फैक्टर रहा प्रॉपर्टी में उछाल का....सो यहाँ प्रॉपर्टी के रेट दिन दूने रात चौगुने होने लगे...ज़मीन आसमान   में उड़ने लगी

वैसे असल कारण यह नहीं था इस बढ़ोतरी का....असल कारण यह था कि प्रॉपर्टी दिल्ली का, भारत का स्विस बैंक था......सब अनाप शनाप पैसा प्रॉपर्टी में लगता था .....जिनको प्रॉपर्टी की कोई ज़रूरत नहीं थी वो लोग ब्लैक मार्केटिंग कर रहे थे.

आप घी, चावल, चीनी स्टोर नहीं कर सकते, यह गैर कानूनी है, ब्लैक मार्केटिंग है लेकिन प्रॉपर्टी स्टोर कर सकते हैं, यह इन्वेस्टमेंट कहलाता है....बस इन्वेस्टमेंट के नाम  पर काला बाज़ारी होने लगी 

काला बाज़ारी ज्यों चली तो दो हज़ार ग्यारह के मध्य तक चली.  उतार चड़ाव रहा  लेकिन कुल मिला  जो उतार  भी रहा वो फिर  से चड़ाव में बदल गया. 

दो हज़ार ग्यारह में महीनों में प्रॉपर्टी डबल हो गयी, ढाई गुणा हो गयी.
दिल्ली का  एक आम  एल ई जी फ्लैट जो चालीस लाख  का था जनवरी में, जून तक वो अस्सी लाख का हो गया, जो एम ई जी  सत्तर लाख का था वो एक करोड़  पार कर गया...लोगों के ब्याने वापिस होने लगे...झगड़े पड़ने लगे.....जिन लोगों ने बिल्डरों को हिस्सेदारी में अपने मकान बनाने को दिए उनको लगने लगा बिल्डरों ने उन्हें लूट लिया है.....कंस्ट्रक्शन कोलैबोरेशन  के सौदे  होने में ही नहीं आते थे.....मालिक लोग बहुत ज़्यादा उम्मीद करने लगे

बस वहीं 'दी एंड' हो गया.

लेकिन आज भी प्रॉपर्टी डीलर बंधु खुद को तथा नौसीखिए लोगों को तस्स्लियाँ देते फिरते हैं, नहीं यह तो मंदा है...मंदा तेज़ी आती रहती है

सयाने लोग अपना पैसा सब पहले ही निकाल चुके हैं या निकालते जा रहे हैं....बेवकूफ अभी भी फंसे हैं

यह सारा वाकया  सुनाने का एक मकसद है

रोटी कपडा मकान ज़रूरी चीज़ें मानी जाती हैं इन्सान  के लिए...बेसिक ज़रूरतें

मकान कैसे आम आदमी से छीना गया, कैसे षड्यंत्र किया गया उसकी मिसाल है यह कहानी

न सिर्फ दिल्ली बल्कि पूरे भारत का प्रॉपर्टी बाज़ार काला बाजारियों के लिए खेल का मैदान बन गया था...एक ही प्रॉपर्टी एक ही दिन में एक से ज़्यादा बार बिक जाती थी....बयाने बयाने में ही

जगह जगह प्रॉपर्टी डीलरों  के दफ्तर खुलते जा रहे थे....शामें गुलज़ार होती थीं वहां....शराब के दौर चलते थे और कहीं तो शबाब के भी.....प्रॉपर्टी डीलर  इस मुल्क के सबसे ज़्यादा व्यस्त और धन कमाने वाले प्राणी बन चुके थे.........कोई पढाई लिखाई की, कोई प्रोफेशनल कोर्स की, किसी डिग्री की ज़रुरत नहीं थी......बोर्ड लगाओ, थोड़ी दीन दुनिया की समझ, हो जाओ शुरू .....कुछ ही दिन में बन्दा  दुपहिये से चौपहिये पर 

लेकिन इस सारे खेल में धीरे धीरे मकान आम आदमी की पहुँच से बाहर हो गया....रेट इतने हो  चुके थे कि एक आम इंसान    कमा  के, खा  के,  पचा के, बचा  के  एक जीवन में तो  एक आम घर ले ही नहीं सकता था...लोगों  की आमदनियां  हज़ारों रुपये  में थी  और मकान-दूकान  लाखों   में ही नहीं करोड़ों  में पहुँच चुके थे  ...गहन   असंतुलन

लोग गर्व से बातें करते, मैंने दो साल पहले मात्र इतने लाख रुपैये का यह मकान लिया था आज दो गुणा हो गया है, जैसे पता नहीं कितनी अक्ल और मेहनत का नतीजा हो उनका यह लाभ? 

कोई बुद्धि लगाने की ज़रुरत  ही नहीं थी.....कोई    भी   इंसान जैसी भी प्रॉपर्टी खरीदता था वो फायदे में  ही जाता था

अब बेक गियर लगा है,  प्रॉपर्टी की कीमत तीन साल में आधी गिर चुकी है, और जो आधा कर के भी कीमत आंकी जाती है उस पर भी आसानी से कोई ग्राहक नहीं मिल रहा है.

पहले तो राम लाल के नाम प्रॉपर्टी होती थी, शाम लाल जा कर कागजात सही कर आता था.....सैंकड़ों की तादाद में सौदे खरीद बेच करने वाले लोग अपने किसी भी  नौकरों को कागज़ात सही करने भेज देते थे...वहां फोटो, अंगूठा, पहचान पात्र आदि का चलन बहुत बाद में हुआ.....किसी जमाने में कश्मीरी गेट रिट्ज सिनेमा के साथ, बड़े बस अड्डे के साथ सुब रजिस्ट्रार ऑफिस में मेला लगा रहता था प्रॉपर्टी के कागज़ात कराने वालों का....जिस तरह किसी बड़ी फिल्म के टिकेट लेने को लोग लाइन में खड़े लोगों के सर के ऊपर से पास-ओन किये जाते थे...कुछ कुछ वैसा ही माहौल.....पैर रखने की जगह मुश्किल...बाहर  टाइप मशीनें लगातार खट-खट बजती रहती थीं ......लोग दो करोड़ रुपैये कि प्रॉपर्टी दो लाख की दिखा रहे थे, दिखाते  रहे हैं .....लेकिन अब  सर्किल रेट  बढ़ाये गए हैं. सर्किल रेट,वो रेट है  जिससे कम में आप किसी प्रॉपर्टी की खरीद बेच दिखा ही नहीं   सकते. धीरे धीरे दो नम्बर की बाज़ार एक नंबर में तब्दील होने लगी है. ज़मीन के  रेट    ज़मीन   पर आने लगे हैं .

लेकिन अभी भी आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर है प्रॉपर्टी.  अभी प्रॉपर्टी  की  कीमत  आगे और गिरेगी, जो कि बहुत अच्छी बात है, मेरी पूरी कामना है कि प्रॉपर्टी जो करोड़ों में पहुँच गयी थी फिर से लाखों में आ जाए और इतने लाख में आ जाए कि आम आदमी कमा खा  कर ज़्यादा से  ज़्यादा पांच छः  साल में जो बचाता है उससे एक आम घर खरीद सके.....यदि ऐसा नहीं होता तो साफ़ है कि कहीं षड्यंत्र है

वैसे तो मनुष्य को आबादी इतनी सीमित कर लेनी चाहिए कि रोटी कपडा और मकान उसे जन्म के साथ ही मिलना चाहिए....जैसे  एक सरकारी   रिटायर्ड व्यक्ति को पेंशन मिलती है...ऐसे ही.  इस पृथ्वी पर आदम के बच्चे  को लाना ही तब चाहिए जब हम उसकी  ता-उम्र की  बेसिक ज़रूरतें पूरी कर सकें ताकि वो जीवन जी सके....अभी हम में से अधिकांश जीवन जीते नहीं हैं...हमारा जीवन कमाने में खो जाता है, मूल आवश्यकताओं की पूर्ति में ही खप जाता है ...इस मरे मरे, आधे अधूरे जीवन को जीवन कहना जीवन का अपमान है ....लेकिन जब तक यह धारणा ज़मीन पर नहीं उतरती, यह ख्वाब   हकीकत  नहीं बनता  तब तक कम से कम इतना तो हो जैसा मैंने ऊपर  सुझाव   दिया है.....ऐसा तो न हो कि व्यक्ति एक घर का ख्वाब आँखों में लिए जीता रहे और उस ख्वाब को आँखों में लिए ही मर जाए 

लेकिन जैसे ज़्यादा धन वाले आम इंसान के खाने पीने को दूषित कर रहे हैं, उसके रहन सहन को दूषित कर रहे हैं वैसे ही आम इन्सान से घर भी दूर कर रहे हैं

प्रॉपर्टी की कीमतों  की, किरायों की सीमा होनी चाहिए, एक सरकारी नियन्त्रण...घर बेसिक नीड है, मूलभूत  आवश्यकता. इस पर खुली  व्यापारिक छूट देना कालाबाज़ारी को बढ़ावा देना है.  और पहले घर के रहते दूसरा घर खरीदना बहुत मुश्किल कर देना चाहिए, घर रहने के मतलब को होने चाहिए न कि निवेश के  लिए.

कहीं एक कमरे में बीस लोग रह रहे हैं और कहीं बीस कमरे एक आदमी के पास हैं

मैं गरीबों का अंध समर्थक कभी नहीं हूँ, .......लेकिन एक तरह के संतुलन का समर्थक हूँ

निश्चित ही ज़्यादा बुद्धिशाली, ज़्यादा श्रमशाली को उसका फल भी मिलना चाहिए, यदि  हम उसका फल   उसे  नहीं लेने देंगे  तो   मानव जाति की तरक्की में बाधा डालेंगे..लेकिन तरक्की का मतलब यह नहीं कि समाज का एक तबका अपने धन के दम पर दूसरों का खाना पीना, जीना मुहाल कर दे. तरक्की की छूट दूसरों की कीमत पर नहीं  दी  जा सकती

इस कीमत   पर  नहीं  दी  जा सकती   कि आम  आदमी   की रोटी जहरीली कर दी जाए, फैशन के नाम पर उसका पहनावा बेतुका कर दिया जाए और घर एक ऐसा सपना कर दिया जाए   जो एक जन्म में शायद ही पूरा होता हो

कीमतों   में गिरावट से कुछ उम्मीद बनी है लेकिन अभी आम आदमी के लिए दिल्ली बहुत दूर है...अभी तो लोग ठीक से समझ ही नहीं पाए हैं कि इस मामले में उनके साथ हुआ क्या है....और जब आप सवाल ही न समझें तो जवाब क्या खोजेंगे?

एक प्रयास है यह मेरा...इस विषय  में सवाल  और जवाब खोजने  का ...पढने के लिए आप सबका बहुत धन्यवादी हूँ, और जो पसंद करते हैं, अपनी राय रखते हैं उनको तो करबद्ध प्रणाम 

 कॉपी राईट मैटर...चुराएं  न...बेहतर  है कि शेयर करें 
तुषार/ 9818018725 

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