सपनों का घर
पता नहीं रईस घरों के बच्चों के साथ कभी ऐसा हुआ या नहीं, मगर मध्यवर्गीय घरों के युवाओं के एक वर्ग में मैंने एक खास किस्म की समानता देखी है- वे समाज को बदलने की बात करते हैं। हालांकि 35-40 की उम्र तक आते-आते वे भी बहुत हद तक सांसारिक हो जाते हैं, मगर 15-20 साल की उम्र में उनका सबसे बड़ा सपना ही दुनिया को बदलने का होता है। वे ऐसी दुनिया का स्वप्न देखते हैं, जिसमें अमीरी-गरीबी के बीच खाई न रहे, जहां सच और ईमानदारी की विजय हो और झूठे, पाखंडी, बेईमान, भ्रष्ट लोगों को सजा मिले। मैं नहीं भूला हूं कि किस तरह कॉलेज के दिनों में मैं बार-बार अपने दोस्तों को कहता था और यह बात मैंने कविता के रूप में भी लिखी कि मैं एक अदद बीवी, एक स्कूटर, दो बच्चों और एक दो कमरे के घर वाला जीवन नहीं जिऊंगा। जाहिर है, यह सोच जवानी के क्रांतिकारी झुकाव का ही परिणाम था। यह 1980 के दशक की बात है, जिन दिनों सरकारी नौकरियों का बोलबाला था। इन पंक्तियों के जरिए शायद मैं क्लर्की जीवन की खिल्ली उड़ाता था क्योंकि तब वह मुझे सबसे औसत किस्म का जीवन लगता था - बिना रीढ़ का जीवन। मगर क्रांतिकारी बदलावों की जिद के तुरंत बाद एक रुमानी फेज भी आया। अब कल्पना में एक सुंदर बीवी आ गई, दो प्यारे बच्चे आ गए और उनके साथ एक हरी दूब से भरे आंगन वाला घर भी। वहां आंगन के कुछ ही दूरी पर बहती नदी भी चली आई। बाकायदा झूला लगा हुआ था, वहां हरे पेड़ भी थे और फूलों की पंक्तिदार क्यारियों के बीच खेलते दो बच्चे भी।
शहर आने के बाद नौजवानी के उस रुमानी फेज को याद करता हूं तो हंसी आती है। जिस शहर में एक कमरे की खोली पा लेना ही बहुत बड़ी बात हो, वहां ऐसे ऐश्वर्य की कल्पना हास्यास्पद हो ही जाएगी। शहर आकर मैंने पाया कि यहां मुकम्मल घर को लेकर लोगों का नजरिया कुछ और ही था। अलबत्ता शहर में सपनों के घर को लेकर हरसंभव समझौता करने के बावजूद उसका अस्तित्व असंभव जान पड़ता है। यहां आप सबसे पहले समझौते के रूप में आलीशान घरों को अपनी नजर की हद से हटा देते हैं। इसके बाद हरी दूब वाला आंगन खुद ब खुद गायब हो जाता है। आंगन के साथ पेड़ और फूलों की क्यारियां भी चली जातीं हैं। पहले ही आप दो की बजाय एक बच्चे पर आ चुके होते हैं। आपके लिए यह बड़ी सुविधा है। आप सोचते हैं कि बच्चा अपने खेलने के लिए जगह ढूंढ ही लेगा, जरूरी ये है कि घर में थोड़ी जगह हो। बच्चा बड़ा हो गया है, उसे साथ सुलाना अच्छा नहीं लगता। घर में दो कमरे तो जरूर हों। किचन में पत्नी को पसीना पोंछने के लिए हाथ उठाने लायक जगह मिल जाए और एक छोटा-सा हॉल, जहां कभी गांव-देहात से आने वाले रिश्तेदार-नातेदार के सोने की व्यवस्था की जा सके। बाथरूम और टॉयलेट छोटे हों, तो भी चलेगा- एक ही बार तो इस्तेमाल करना है उनका। सपनों के घर में तमाम कांट-छांट और समझौतों के बाद आप बाजार का रुख करते हैं। आपने दिमाग में सारा जोड़ घटा किया हुआ है- पुश्तैनी घर को बेच देने से इतना पैसा मिलेगा, जरूरत पड़ेगी तो बीवी के भी कुछ गहने बेच देंगे, बैंक से ज्यादा से ज्यादा लोन- क्या होगा, दस-पंद्रह साल तंगी में रह लेंगे, पीएफ भी पूरा लग जाए, तो कोई बात नहीं। सिर पर एक स्थायी छत तो हो जाएगा।
अब आप बाजार का रुख करते हैं। मगर वहां से दुत्कार दिए जाते हैं। आपसे गलती यह हो जाती है कि आप शहर के दिल की ओर रुख कर लेते हैं, जहां पैर रखने लायक जमीन ही आपके घर से ज्यादा महंगी निकलती है। अब आप शहर के पैताने की ओर खिसकना शुरू होते हैं। जल्दी ही शहर के पैर भी पीछे छूट जाते हैं। इस दौरान आपके दिमाग में अपने घर का नक्शा और छोटा हो जाता है क्योंकि आप सोच लेते हैं कि गांव से लोगों को यहां कभी बुलाएंगे ही नहीं या अगर वे आ भी गए तो उन्हें कुछ बोलकर टरका देंगे। आप हॉल को नक्शे से निकाल देते हैं। अब तक बिल्डर आपको इतनी दूर ले आया होता है कि शहर का पैताना भी आपकी नजर से गायब हो जाता है। आप घबरा जाते हैं कि इतनी दूर से दफ्तर कैसे जाएंगे। आने-जाने में ही छह घंटे लग जाएंगे। अब आप दो कमरों में से एक को छोड़ देते हैं - बच्चा अभी बारह साल का ही तो है। दो-तीन साल और साथ सो सकता है।
इस तरह नदी किनारे हरी दूब के आंगन में झूले और फूलों की क्यारियों के बीच खेलते बच्चों और ऊपर घर की बालकनी से अपनी प्राणप्यारी के साथ खड़े होकर मुग्धभाव से इहलोक के इस परम सुख में डूबने का आपका उड़ता हुआ सपना हकीकत बनते हुए शहर के पार जाकर किसी जमीन से आ लगता है और खुद को धन्यभाग मानते हैं।
पता नहीं रईस घरों के बच्चों के साथ कभी ऐसा हुआ या नहीं, मगर मध्यवर्गीय घरों के युवाओं के एक वर्ग में मैंने एक खास किस्म की समानता देखी है- वे समाज को बदलने की बात करते हैं। हालांकि 35-40 की उम्र तक आते-आते वे भी बहुत हद तक सांसारिक हो जाते हैं, मगर 15-20 साल की उम्र में उनका सबसे बड़ा सपना ही दुनिया को बदलने का होता है। वे ऐसी दुनिया का स्वप्न देखते हैं, जिसमें अमीरी-गरीबी के बीच खाई न रहे, जहां सच और ईमानदारी की विजय हो और झूठे, पाखंडी, बेईमान, भ्रष्ट लोगों को सजा मिले। मैं नहीं भूला हूं कि किस तरह कॉलेज के दिनों में मैं बार-बार अपने दोस्तों को कहता था और यह बात मैंने कविता के रूप में भी लिखी कि मैं एक अदद बीवी, एक स्कूटर, दो बच्चों और एक दो कमरे के घर वाला जीवन नहीं जिऊंगा। जाहिर है, यह सोच जवानी के क्रांतिकारी झुकाव का ही परिणाम था। यह 1980 के दशक की बात है, जिन दिनों सरकारी नौकरियों का बोलबाला था। इन पंक्तियों के जरिए शायद मैं क्लर्की जीवन की खिल्ली उड़ाता था क्योंकि तब वह मुझे सबसे औसत किस्म का जीवन लगता था - बिना रीढ़ का जीवन। मगर क्रांतिकारी बदलावों की जिद के तुरंत बाद एक रुमानी फेज भी आया। अब कल्पना में एक सुंदर बीवी आ गई, दो प्यारे बच्चे आ गए और उनके साथ एक हरी दूब से भरे आंगन वाला घर भी। वहां आंगन के कुछ ही दूरी पर बहती नदी भी चली आई। बाकायदा झूला लगा हुआ था, वहां हरे पेड़ भी थे और फूलों की पंक्तिदार क्यारियों के बीच खेलते दो बच्चे भी।
शहर आने के बाद नौजवानी के उस रुमानी फेज को याद करता हूं तो हंसी आती है। जिस शहर में एक कमरे की खोली पा लेना ही बहुत बड़ी बात हो, वहां ऐसे ऐश्वर्य की कल्पना हास्यास्पद हो ही जाएगी। शहर आकर मैंने पाया कि यहां मुकम्मल घर को लेकर लोगों का नजरिया कुछ और ही था। अलबत्ता शहर में सपनों के घर को लेकर हरसंभव समझौता करने के बावजूद उसका अस्तित्व असंभव जान पड़ता है। यहां आप सबसे पहले समझौते के रूप में आलीशान घरों को अपनी नजर की हद से हटा देते हैं। इसके बाद हरी दूब वाला आंगन खुद ब खुद गायब हो जाता है। आंगन के साथ पेड़ और फूलों की क्यारियां भी चली जातीं हैं। पहले ही आप दो की बजाय एक बच्चे पर आ चुके होते हैं। आपके लिए यह बड़ी सुविधा है। आप सोचते हैं कि बच्चा अपने खेलने के लिए जगह ढूंढ ही लेगा, जरूरी ये है कि घर में थोड़ी जगह हो। बच्चा बड़ा हो गया है, उसे साथ सुलाना अच्छा नहीं लगता। घर में दो कमरे तो जरूर हों। किचन में पत्नी को पसीना पोंछने के लिए हाथ उठाने लायक जगह मिल जाए और एक छोटा-सा हॉल, जहां कभी गांव-देहात से आने वाले रिश्तेदार-नातेदार के सोने की व्यवस्था की जा सके। बाथरूम और टॉयलेट छोटे हों, तो भी चलेगा- एक ही बार तो इस्तेमाल करना है उनका। सपनों के घर में तमाम कांट-छांट और समझौतों के बाद आप बाजार का रुख करते हैं। आपने दिमाग में सारा जोड़ घटा किया हुआ है- पुश्तैनी घर को बेच देने से इतना पैसा मिलेगा, जरूरत पड़ेगी तो बीवी के भी कुछ गहने बेच देंगे, बैंक से ज्यादा से ज्यादा लोन- क्या होगा, दस-पंद्रह साल तंगी में रह लेंगे, पीएफ भी पूरा लग जाए, तो कोई बात नहीं। सिर पर एक स्थायी छत तो हो जाएगा।
अब आप बाजार का रुख करते हैं। मगर वहां से दुत्कार दिए जाते हैं। आपसे गलती यह हो जाती है कि आप शहर के दिल की ओर रुख कर लेते हैं, जहां पैर रखने लायक जमीन ही आपके घर से ज्यादा महंगी निकलती है। अब आप शहर के पैताने की ओर खिसकना शुरू होते हैं। जल्दी ही शहर के पैर भी पीछे छूट जाते हैं। इस दौरान आपके दिमाग में अपने घर का नक्शा और छोटा हो जाता है क्योंकि आप सोच लेते हैं कि गांव से लोगों को यहां कभी बुलाएंगे ही नहीं या अगर वे आ भी गए तो उन्हें कुछ बोलकर टरका देंगे। आप हॉल को नक्शे से निकाल देते हैं। अब तक बिल्डर आपको इतनी दूर ले आया होता है कि शहर का पैताना भी आपकी नजर से गायब हो जाता है। आप घबरा जाते हैं कि इतनी दूर से दफ्तर कैसे जाएंगे। आने-जाने में ही छह घंटे लग जाएंगे। अब आप दो कमरों में से एक को छोड़ देते हैं - बच्चा अभी बारह साल का ही तो है। दो-तीन साल और साथ सो सकता है।
इस तरह नदी किनारे हरी दूब के आंगन में झूले और फूलों की क्यारियों के बीच खेलते बच्चों और ऊपर घर की बालकनी से अपनी प्राणप्यारी के साथ खड़े होकर मुग्धभाव से इहलोक के इस परम सुख में डूबने का आपका उड़ता हुआ सपना हकीकत बनते हुए शहर के पार जाकर किसी जमीन से आ लगता है और खुद को धन्यभाग मानते हैं।
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