भूमि अधिग्रहण के खिलाफ देश भर में विरोध और आंदोलन बढ़ रहे हैं। यह साफ है कि अगर हमें और सड़कें चाहिए, तेज ट्रैफिक चाहिए, ज्यादा निवेश चाहिए, हम और ज्यादा उद्योग लगाना चाहते हैं, तो भूमि अधिग्रहण करना ही पड़ेगा। फिलहाल हमें यहां इस बहस में नहीं उलझना है कि क्या इस तरह का विकास हमारे लिए सही है या नहीं।हम विकास का चाहे कोई भी मॉडल अपना लें, लेकिन उपभोक्ताओं की अपेक्षाएं बढ़ रही हैं, इसलिए हमें और इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत तो पड़ेगी ही, जिसका अर्थ है मौजूदा क्षमता का विस्तार। लेकिन इस काम को कैसे किया जाए कि न सिर्फ किसानों के, बल्कि खेतिहर मजदूरों के हितों का भी अच्छी तरह से ध्यान रखा जा सके? इसके अलावा यह व्यवस्था भी हो कि जिनका भू-अधिग्रहण से हित जुड़ा है, वे उसका बेजा फायदा भी न उठा सकें।
दरअसल असली दोष भू-अधिग्रहण की मौजूदा व्यवस्था में है। अभी तक यह होता है कि सरकार किसानों से जमीन लेती है, उसे जमा व विकसित करके निवेशकों को बेच देती है। यह व्यवस्था कई तरह से गलत, अन्यायपूर्ण और गैरमुनासिब है। एक तो भविष्य में जमीन की कीमत बढ़ने का कोई फायदा किसान को नहीं मिलता। फिर यह तरीका सरकार को गलत कमाई करने वाला बना देता है। पारदर्शिता न होने के कारण यह काम भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला तो होता ही है।
इस व्यवस्था में भूमिहीन मजदूरों को कोई मुआवजा नहीं मिलता और उन्हें पूरी तरह से बाजार की ताकतों के भरोसे छोड़ दिया जाता है। इस अधिग्रहण व्यवस्था में उन किसानों और मजदूरों को किसी तरह की नई कुशलता विकसित करने का कोई मौका नहीं दिया जाता, जो इस पूरी प्रक्रिया में बेरोजगार हो जाते हैं, भले ही इन किसानों को वहां रहने के लिए जमीन का छोटा-सा टुकड़ा ही क्यों न दे दिया जाता हो।
इन हालात को सुधारने के लिए हमें कुछ ऐसे उपाय अपनाने होंगे कि यह काम सभी के लिए न्यायपूर्ण हो। इसके लिए कई चीजों का ध्यान रखना होगा। सबसे पहले तो हमें एकबारगी नकद मुआवजा देकर मामले को खत्म करने की कोशिश के बजाय मुआवजे का एक पूरा पोर्टफोलियो देने की नीति अपनानी होगी।
फिर दावेदारों में हमें मजदूरों को भी शामिल करना होगा, क्योंकि इस काम में वे भी अपना रोजगार खो देते हैं। हमें उन्हें इस रोजगार, और उनके मवेशियों के पालन-पोषण की व्यवस्था खोने की कीमत देनी होगी। इसके अलावा उनमें वैकल्पिक दक्षता के विकास को भी मुआवजे का हिस्सा बनाना होगा। हमें उन स्थितियों से बचना होगा, जहां एक तरफ तो पैसा मिलने पर एकाएक दहेज की मांग बढ़ जाती है, लोग मुआवजे के पैसे को बिना सोचे-समझे उड़ाने में जुट जाते हैं, और दूसरी तरफ बहुत-से लोग अकुशल मजदूर बन जाते हैं, यहां तक कि उन्हें बर्तन मांजने जैसे काम करने पड़ते हैं।
ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए मेरे कुछ सुझाव हैं। पहला तो यही कि भूमिहीन मजदूरों के हितों का पूरा खयाल रखा जाए। दूसरा, सारा मुआवजा एकमुश्त नकद न दिया जाए। इसे नगद, बांड, मध्यावधि जमा योजना वगैरह के पोर्टफोलियो के रूप में दिया जा सकता है। यह पोर्टफोलियो कई तरह का हो सकता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि एकमुश्त नकद लेने वाले के मुकाबले पोर्टफोलियो के रूप में धन लेने वालों की अंतिम धनराशि ज्यादा हो।
तीसरा, पुरुषों और महिलाओं के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाया जाना चाहिए, ताकि उन्हें तरह-तरह के काम-धंधे सिखाए जा सकें। चौथा, लोगों को विभिन्न तरह के छोटे कारोबार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए एक फंड बनाया जाना चाहिए, जिसके लिए कोष जमीन की बिक्री से आए पैसे से जुटाया जाए।
पांचवां, कृषि के वैकल्पिक तरीके अपनाए जाने चाहिए, जैसे वर्टिकल फार्मिग, ग्रीन हाउस वगैरह। छठा, इन जगहों पर सांस्कृतिक केंद्र भी बनाए जाने चाहिए, ताकि स्थानीय संस्कृति नष्ट न हो सके। इसमें लोगों को रोजगार मिलेगा। उन्हें भावनात्मक संतोष भी होगा। सातवां, स्थानीय फैब्रिकेशन और मरम्मत की जरूरतों के लिए एक प्रयोगशाला बनाई जानी चाहिए। आठवां, एक बॉयोडायवर्सिटी केंद्र बनाया जाना चाहिए, जहां पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों की स्थानीय किस्मों व प्रजातियों का संरक्षण किया जा सके। जहां कहीं भी भूमि-अधिग्रहण हो, वहां की कम से कम एक प्रतिशत जमीन को इस काम के लिए सुरक्षित रखा जाए।
कुछ लोगों को ये सुझाव कल्पना की उड़ान लग सकते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि विकास का प्रबंधन काफी जटिल होता है, इसे सिरे चढ़ाने के लिए कई तरह की सरकारी एजेंसियों की जरूरत होती है। यही एजेंसियां इस काम को कर सकती हैं। लेकिन अगर हम यह नहीं चाहते कि अपराध दर बढ़े, सुरक्षा एजेंसियां करोड़ों रुपये की कमाई करें, हमें अपने घरों-दफ्तरों की दीवारें ऊंची बनानी पड़ें, उन पर कंटीली तार लगानी पड़े, हमारे आस-पास के कुछ लोग शरणार्थी और अनाथ बन जाएं, किसान और दलित पहले के मुकाबले ज्यादा गरीब हो जाएं, तो हमें अपनी नीतियां बदलनी ही होंगी। अगर हम इस राह पर नहीं चले, तो अस्थिरता बढ़ेगी और हो सकता है कि कभी कोई बड़ी बगावत हो जाए।
जब नर्मदा परियोजना पर काम चल रहा था, तो मैंने ऐसी ही नीतियों का एक प्रस्ताव रखा था, लेकिन न तो बाबा आम्टे ने और न ही वहां काम कर रहे अन्य संगठनों ने इन्हें इस लायक समझा कि इन पर विचार भी किया जाए। तब कुछ लोगों को ऐसा लग रहा था कि जैसे वनवासियों को कारोबारी बनाने की बात करके मैं कोई अपराध कर रहा हूं। उन्हें बस सरकार या बाजार की दया पर ही निर्भर रहने देना चाहिए। जबकि कुछ अन्य लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि इतने बड़े बदलाव की कल्पना कैसे की जा सकती है।
मेरा सुझाव था कि इस बांध को एक तरह का पॉलीटेक्नीक बना दीजिए, जिसमें वनवासियों को प्रशिक्षण मिले। यहां से वे सर्टिफिकेट लेकर भविष्य के सेवा प्रदाता बनें। यह अस्सी के दशक की शुरुआत की बात है। अगर यह काम उस समय हो गया होता, तो वे आज की तरह अकुशल मजदूर बनकर जगह-जगह भटक न रहे होते। अब वे भटक रहे हैं। इस दौरान उनके बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पाती है और उनका भविष्य भी सस्ते मजदूर बनने के अलावा और कुछ नहीं है।
हमारे नीति बनाने वाले लोग अगर बहुत दूर तक नहीं देख पाते, तो इसका खामियाजा समाज क्यों भुगते? हमें इस संवाद को आगे बढ़ाना होगा, ताकि विकास के हर कदम के साथ ही गरीब की स्थिति सुधरे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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